गजलें और शायरी >> आज के प्रसिद्ध शायर - शहरयार आज के प्रसिद्ध शायर - शहरयारकमलेश्वर
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प्रस्तुत है चुनी हुई गजलें नज्में शेर और जीवन परिचय
Aaj Ke Prasiddh Shayar - Shaharyar
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मशहूर उर्दू शायर शहरयार के समूचे कलाम में से उनके करीबी दोस्त प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर द्वारा विशेष रूप से तैयार किया गया संकलन शायर की जिन्दगी और उनके लेखन पर रोचक भूमिका सहित चौकानेवाली आतिशबाजी से हटकर शाइस्तगी से भरी कुछ ऐसी शायरी जो अनजाने ही वक्त की पुकार में बदल जाती है।
आज के प्रसिद्ध शायर : शहरयार
हिन्दुस्तानी अदब में शहरयार वो नाम है जिसने छठे दशक की शुरूआत में शायरी के साथ उर्दू अदब की दुनिया में अपना सफ़र शुरू किया। यह दौर वह था जब उर्दू शायरी में दो धाराएँ बह रही थीं और दोनों के अपने अलग-अलग रास्ते और अलग-अलग मंज़िलें थीं। एक शायरी वह थी जो परम्परा को नकार कर बगा़वत को सबकुछ मानते हुए नएपन पर ज़ोर दे रही थी और दूसरी अनुभूति, शैली और जदीदियत की अभिव्यक्ति के बिना पर नया होने का दावा कर रही थी और साथ ही अपनी परम्परा को भी सहेजे थी ! शहरयार ने अपनी शायरी के लिए इस दूसरी धारा के साथ एक नए निखरे और बिल्कुल अलग अन्दाज़ को चुना—और यह अन्दाज़ नतीजा था और उनके गहरे समाजी तजुर्बे का, जिसकी तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई कारगर-रचनात्मक सपना नहीं देखा जा सकता। उसके बाद वे अपनी तनहाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में लगे रहे ! इसमें सबसे बड़ा योगदान उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का है जिसने उन्हें पाला-पोसा और वक्त-वक्त पर उन्हें सजाया, सँभाला और सिखाया है।
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार का जन्म 6 जून 1936 को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे क़दीमी रहने वाले वह चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के हैं। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें 1948 में अलीगढ़ भेज दिया गया। लेकिन यहाँ गवर्नमेन्ट स्कूल में दाखिला नहीं हो पाया, मजबूरन शहरयार को सिटी स्कूल में पढ़ना पढ़ा। अब तक अंग्रेजी मीडियम से पढ़े-लिखे विद्यार्थी का उर्दू से साबका पड़ रहा था। खैर, किसी तरह स्कूली पढ़ाई पूरी करके यूनीवर्सिटी पहुँचे और फिर यहीं के हो रहे !
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे और वालिद की यह इच्छा थी कि ये उन्हीं के क़दमों पर चलते हुए पुलिस अफसर बन जाएँ। इसके लिए उन्होंने कोशिश भी भरपूर की। दरोगाई का फॉर्म लाकर दिया गया लेकिन इन्होंने झूठ बोल दिया और फार्म जमा नहीं किया, और वालिद विरासत में जो पुलिस की वर्दी पहनाना चाहते थे, उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई क्योंकि अख़लाक मोहम्मद खाँ को तो ‘शहरयार’ बनना था। लालखानियों के अपने इलाके की विरासत सांझी तहजीब़ को अपने कांधों पर लेकर चलना था ! सन् 1961 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. किया। इससे पहले इरादा था मनोविज्ञान से एम.ए. करने का। वहाँ मनोविज्ञान में एक साल बिगाड़ा भी। इसलिए इनके दोस्त, सहपाठी और शायर-उपन्यासकार राही मासूम रज़ा इनसे एक साल आगे निकल गए ! विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू-मुअल्ला के सैक्रेटरी और ‘अलीगढ़ मैगज़ीन’ के सम्पादक बना दिए गए और तभी से इनके इरादों ने पकना शुरू कर दिया। अपने इलाके की सांझी तहजीब ने इनके लिए मज़हब का रूप अख्तियार कर लिया ! उर्दू और हिन्दी भाषा के बीच दीवार बनावटी नज़र आने लगी। सन् 1959 में ‘ग़ालिब’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन-सम्पादन शुरू किया लेकिन उसके सिर्फ पाँच अंक ही निकल पाए। उसके बाद मुग़नी तबस्सुम के साथ एक बहुत ही अहम अदबी रिसाला ‘शेर-ओ-हिकमत’ निकालना शुरू किया, इसके कई महत्त्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए। इसके बाद 1961 से 1966 तक ‘हमारी ज़बान’ से जुड़े रहे !
असल में अलीगढ़ का यह वह दौर था जब एक ओर इतिहासकार मोहम्मद हबीब, प्रो, नूरुल हसन, जाने-माने अदीब डॉ. आले अहमद सरूर और प्रो. मोहम्मद अलीम एक नई पीढ़ी तैयार करने में जुटे थे जो मुल्क में जम्हूरी तहज़ीब कायम रख सके और फ़िरकापरस्ती से लड़ते हुए नए तरक्कीपसन्द अदब की तहरीर कर सके ! वहीं दूसरी ओर थे—अफ़सानानिग़ार काज़ी अब्दुस सत्तार, शायर और उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रज़ा, जावेद कमाल, डॉ. कुँवर पाल सिंह और मुग़नी तबस्सुम, जो बुजुर्गों की दी हुई मशाल को लेकर आगे बढ़ रहे थे।
सन् 1966 में ही शहरयार विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए जबकि सन् 1965 में ही इनका पहला काव्य संग्रह ‘इस्मे-आज़म’ प्रकाशित हो चुका था ! इसके बाद 1983 में रीडर और 1987 में वहीं प्रोफ़ेसर हो गए ! प्रोफ़ेसर बनने के साथ-साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की विचारप्रधान पत्रिका ‘फिक्र-ओ-नज़र’ के सम्पादन की ज़िम्मेदारी भी इन्हें सौंप दी गई ! अपने सम्पादन में शहरयार ने मौ. अबुल कलाम आज़ाद, हाली शिबली, नज़ीर अहमद और सर सैयद विशेषांक प्रकाशित किए जिन्हें आज भी सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में लिया जाता है !
सन् 1969 में इसका दूसरी काव्य-संग्रह ‘सातवाँ दर’ छपा। फिर ‘हिज़्र के मौसम’ 1978 में, फिर 1985 में ‘ख्याल का दर बन्द है’ प्रकाशित हुआ और इसे साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! इसके बाद 1995 में ‘नींद की किरचें’ प्रकाशित हुआ। सिलसिला अब भी ज़ारी है और शहरयार बदस्तूर शे’र कह रहे हैं। और अब तो इनका समूचा काव्य लेखन नागरी लिपि में भी आ गया है और हिन्दीभाषी लोगों ने भी भरपूर स्वागत किया।
दरअसल शहर अलीगढ़ में शहरयार की जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बीता। यहीं उन्होंने अदब और शायरी का पहला हरफ़ सीखा। इस शहर ने हिन्दी और उर्दू दोनों ही ज़ुबानों में बहुत से अदीब बनाए हैं ! फिरकापरस्ती का बदनुमा दाग भी इसी शहर के माथे पर निहित स्वार्थी लोगों ने चस्पाँ कर रखा है। पर ये शहर सांझी तहज़ीब का नुमाइंदा है और सैक्यूलर है। शहरयार इसी की देन हैं ! यह शहर नहीं बल्कि हिन्दुस्तानी तहज़ीब का एक इदारा है जहाँ हिन्दी उर्दू के बीच कोई दीवार नहीं है ! उर्दू अदबी हिन्दी लेखकों को ज्यादा अहमियत देते रहे हैं और हिन्दी लेखन पर बदस्तूर बहस करते रहे हैं। और इस सबका सिला शहरयार, काज़ी अब्दुस सत्तार और डॉ. कुँवर पाल सिंह की पीढ़ी को जाता है। ये अब भी ‘संगम’ नाम की एक साहित्यिक संस्था चला रहे हैं जिसमें हिन्दी-उर्दू दोनों के तरक्कीपसन्द अदीब शामिल होते हैं !
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ ‘शहरयार’ की कोशिश यही रही है कि वे शायरी के साथ-साथ अपनी घरेलू ज़िन्दगी को मुकम्मिल रख सकें। एक वाल़िद की हैसियत से उन्होंने कभी अपने बेटों पर अपनी इच्छाएँ नहीं थोपीं और खुद पिता के रूप में पूरी मेहनत भी की ! वे चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी ले, इसलिए खुद अच्छी-अच्छी कहानियाँ लिखते और उसे पढ़ने को देते ! बच्चों के लिए नज़्में लिखते और सुनाते। इसमें काफी हद तक इन्हें कामयाबी भी मिली है। आज तीनों बच्चे (दो बेटे एक बेटी) पढ़-लिखकर अपने-अपने काम से लगे हैं। तीनों की शादियाँ हो गई हैं और शहरयार अब बच्चों की ज़िम्मेदारी से फारिग़ हैं ! लेकिन इस निहायत नर्मदिल नेक इन्सान को जिन्दगी के इस पड़ाव पर अकेलापन जरूर सालता होगा क्योंकि बेगम नजमा शहरयार और शहरयार साथ-साथ नहीं रहते।
यह एक अजीब-सी तकलीफदेह तनहाई है जिसे दोनों एक साथ, एक दूसरे से अलग रह के साथ-साथ जीते हैं..जिसकी गवाह उनके नाम लिखी शहरयार की नज़्म है जो किसी भी साहित्य में अपनी तरह की अकेली कविता है :
नजमा के नाम
क्या सोचती हो !
दीवारे फ़रामोशी से उधर क्या देखती हो !
आइन-ए-ख्वाब में आने वाले लम्हों में मंज़र देखो।
आँगन में पुराने नीम के साये में
भइयू के जहाज़ में बैठी हुई नन्हीं चिड़िया
क्यों उड़ती नहीं !
जंगल की तरफ जाने वाली
वह एक अकेली पगडंडी क्यों मुड़ती नहीं !
टूटी ज़ंज़ीर सदाओं की क्यों जुड़ती नहीं !
एक सुर्ख़ ग़ुलाब लगा लो अपने जूड़े में और फिर सोचो !
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार का जन्म 6 जून 1936 को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे क़दीमी रहने वाले वह चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के हैं। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें 1948 में अलीगढ़ भेज दिया गया। लेकिन यहाँ गवर्नमेन्ट स्कूल में दाखिला नहीं हो पाया, मजबूरन शहरयार को सिटी स्कूल में पढ़ना पढ़ा। अब तक अंग्रेजी मीडियम से पढ़े-लिखे विद्यार्थी का उर्दू से साबका पड़ रहा था। खैर, किसी तरह स्कूली पढ़ाई पूरी करके यूनीवर्सिटी पहुँचे और फिर यहीं के हो रहे !
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे और वालिद की यह इच्छा थी कि ये उन्हीं के क़दमों पर चलते हुए पुलिस अफसर बन जाएँ। इसके लिए उन्होंने कोशिश भी भरपूर की। दरोगाई का फॉर्म लाकर दिया गया लेकिन इन्होंने झूठ बोल दिया और फार्म जमा नहीं किया, और वालिद विरासत में जो पुलिस की वर्दी पहनाना चाहते थे, उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई क्योंकि अख़लाक मोहम्मद खाँ को तो ‘शहरयार’ बनना था। लालखानियों के अपने इलाके की विरासत सांझी तहजीब़ को अपने कांधों पर लेकर चलना था ! सन् 1961 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. किया। इससे पहले इरादा था मनोविज्ञान से एम.ए. करने का। वहाँ मनोविज्ञान में एक साल बिगाड़ा भी। इसलिए इनके दोस्त, सहपाठी और शायर-उपन्यासकार राही मासूम रज़ा इनसे एक साल आगे निकल गए ! विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू-मुअल्ला के सैक्रेटरी और ‘अलीगढ़ मैगज़ीन’ के सम्पादक बना दिए गए और तभी से इनके इरादों ने पकना शुरू कर दिया। अपने इलाके की सांझी तहजीब ने इनके लिए मज़हब का रूप अख्तियार कर लिया ! उर्दू और हिन्दी भाषा के बीच दीवार बनावटी नज़र आने लगी। सन् 1959 में ‘ग़ालिब’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन-सम्पादन शुरू किया लेकिन उसके सिर्फ पाँच अंक ही निकल पाए। उसके बाद मुग़नी तबस्सुम के साथ एक बहुत ही अहम अदबी रिसाला ‘शेर-ओ-हिकमत’ निकालना शुरू किया, इसके कई महत्त्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए। इसके बाद 1961 से 1966 तक ‘हमारी ज़बान’ से जुड़े रहे !
असल में अलीगढ़ का यह वह दौर था जब एक ओर इतिहासकार मोहम्मद हबीब, प्रो, नूरुल हसन, जाने-माने अदीब डॉ. आले अहमद सरूर और प्रो. मोहम्मद अलीम एक नई पीढ़ी तैयार करने में जुटे थे जो मुल्क में जम्हूरी तहज़ीब कायम रख सके और फ़िरकापरस्ती से लड़ते हुए नए तरक्कीपसन्द अदब की तहरीर कर सके ! वहीं दूसरी ओर थे—अफ़सानानिग़ार काज़ी अब्दुस सत्तार, शायर और उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रज़ा, जावेद कमाल, डॉ. कुँवर पाल सिंह और मुग़नी तबस्सुम, जो बुजुर्गों की दी हुई मशाल को लेकर आगे बढ़ रहे थे।
सन् 1966 में ही शहरयार विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए जबकि सन् 1965 में ही इनका पहला काव्य संग्रह ‘इस्मे-आज़म’ प्रकाशित हो चुका था ! इसके बाद 1983 में रीडर और 1987 में वहीं प्रोफ़ेसर हो गए ! प्रोफ़ेसर बनने के साथ-साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की विचारप्रधान पत्रिका ‘फिक्र-ओ-नज़र’ के सम्पादन की ज़िम्मेदारी भी इन्हें सौंप दी गई ! अपने सम्पादन में शहरयार ने मौ. अबुल कलाम आज़ाद, हाली शिबली, नज़ीर अहमद और सर सैयद विशेषांक प्रकाशित किए जिन्हें आज भी सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में लिया जाता है !
सन् 1969 में इसका दूसरी काव्य-संग्रह ‘सातवाँ दर’ छपा। फिर ‘हिज़्र के मौसम’ 1978 में, फिर 1985 में ‘ख्याल का दर बन्द है’ प्रकाशित हुआ और इसे साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! इसके बाद 1995 में ‘नींद की किरचें’ प्रकाशित हुआ। सिलसिला अब भी ज़ारी है और शहरयार बदस्तूर शे’र कह रहे हैं। और अब तो इनका समूचा काव्य लेखन नागरी लिपि में भी आ गया है और हिन्दीभाषी लोगों ने भी भरपूर स्वागत किया।
दरअसल शहर अलीगढ़ में शहरयार की जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बीता। यहीं उन्होंने अदब और शायरी का पहला हरफ़ सीखा। इस शहर ने हिन्दी और उर्दू दोनों ही ज़ुबानों में बहुत से अदीब बनाए हैं ! फिरकापरस्ती का बदनुमा दाग भी इसी शहर के माथे पर निहित स्वार्थी लोगों ने चस्पाँ कर रखा है। पर ये शहर सांझी तहज़ीब का नुमाइंदा है और सैक्यूलर है। शहरयार इसी की देन हैं ! यह शहर नहीं बल्कि हिन्दुस्तानी तहज़ीब का एक इदारा है जहाँ हिन्दी उर्दू के बीच कोई दीवार नहीं है ! उर्दू अदबी हिन्दी लेखकों को ज्यादा अहमियत देते रहे हैं और हिन्दी लेखन पर बदस्तूर बहस करते रहे हैं। और इस सबका सिला शहरयार, काज़ी अब्दुस सत्तार और डॉ. कुँवर पाल सिंह की पीढ़ी को जाता है। ये अब भी ‘संगम’ नाम की एक साहित्यिक संस्था चला रहे हैं जिसमें हिन्दी-उर्दू दोनों के तरक्कीपसन्द अदीब शामिल होते हैं !
कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ ‘शहरयार’ की कोशिश यही रही है कि वे शायरी के साथ-साथ अपनी घरेलू ज़िन्दगी को मुकम्मिल रख सकें। एक वाल़िद की हैसियत से उन्होंने कभी अपने बेटों पर अपनी इच्छाएँ नहीं थोपीं और खुद पिता के रूप में पूरी मेहनत भी की ! वे चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी ले, इसलिए खुद अच्छी-अच्छी कहानियाँ लिखते और उसे पढ़ने को देते ! बच्चों के लिए नज़्में लिखते और सुनाते। इसमें काफी हद तक इन्हें कामयाबी भी मिली है। आज तीनों बच्चे (दो बेटे एक बेटी) पढ़-लिखकर अपने-अपने काम से लगे हैं। तीनों की शादियाँ हो गई हैं और शहरयार अब बच्चों की ज़िम्मेदारी से फारिग़ हैं ! लेकिन इस निहायत नर्मदिल नेक इन्सान को जिन्दगी के इस पड़ाव पर अकेलापन जरूर सालता होगा क्योंकि बेगम नजमा शहरयार और शहरयार साथ-साथ नहीं रहते।
यह एक अजीब-सी तकलीफदेह तनहाई है जिसे दोनों एक साथ, एक दूसरे से अलग रह के साथ-साथ जीते हैं..जिसकी गवाह उनके नाम लिखी शहरयार की नज़्म है जो किसी भी साहित्य में अपनी तरह की अकेली कविता है :
नजमा के नाम
क्या सोचती हो !
दीवारे फ़रामोशी से उधर क्या देखती हो !
आइन-ए-ख्वाब में आने वाले लम्हों में मंज़र देखो।
आँगन में पुराने नीम के साये में
भइयू के जहाज़ में बैठी हुई नन्हीं चिड़िया
क्यों उड़ती नहीं !
जंगल की तरफ जाने वाली
वह एक अकेली पगडंडी क्यों मुड़ती नहीं !
टूटी ज़ंज़ीर सदाओं की क्यों जुड़ती नहीं !
एक सुर्ख़ ग़ुलाब लगा लो अपने जूड़े में और फिर सोचो !
न मालूम बेग़म साहिबा को वह समझ नहीं पाए या बेग़म साहिबा उन्हें नहीं समझ पायीं...एक सुर्ख गुलाब का फूल क्यों अलीगढ़ में नहीं मिल पाया जबकि शहरयार का नाम दोस्ती और शाइस्तगी दोनों ही शोबों में मिसाल के तौर पर लिया जाता है ! हैं भी वो एक नायाब दोस्त !
वैसे, जैसा कि अमूमन होता है, शहरयार के आस-पास के लोगों को और यूनीवर्सिटी में उनके साथियों को उनसे बहुत सारी छोटी-मोटी शिकायतें भी रही हैं—कि शहरयार साफ दो टूक बात नहीं करते, बहुत खुलते नहीं हैं। अपने में अपनी तरह से रहते हैं। कभी किसी के भले-बुरे में टांग नहीं अड़ाते, कहीं कोई बखेड़ा सामने आ जाय तो ज़रा दूर ही खड़े रहते हैं और खामोश खड़े देखते रहते हैं जैसे कुछ देखा-सुना ही न हो ! सफ़रनामा या आत्मकथा लिखने के लिए शहरयार का मानना है कि इसके लिए एक अजीब किस्म की बहादुरी की ज़रूरत होती है और उन्हें कबूल है कि वे बुज़दिल हैं और उनमें हिम्मत की कमी है
वैसे, जैसा कि अमूमन होता है, शहरयार के आस-पास के लोगों को और यूनीवर्सिटी में उनके साथियों को उनसे बहुत सारी छोटी-मोटी शिकायतें भी रही हैं—कि शहरयार साफ दो टूक बात नहीं करते, बहुत खुलते नहीं हैं। अपने में अपनी तरह से रहते हैं। कभी किसी के भले-बुरे में टांग नहीं अड़ाते, कहीं कोई बखेड़ा सामने आ जाय तो ज़रा दूर ही खड़े रहते हैं और खामोश खड़े देखते रहते हैं जैसे कुछ देखा-सुना ही न हो ! सफ़रनामा या आत्मकथा लिखने के लिए शहरयार का मानना है कि इसके लिए एक अजीब किस्म की बहादुरी की ज़रूरत होती है और उन्हें कबूल है कि वे बुज़दिल हैं और उनमें हिम्मत की कमी है
हम में जुर्रत की कमी कल की तरह आज भी है
तिश्नगी किसके लबों पर तुझे तहरीर करूँ
तिश्नगी किसके लबों पर तुझे तहरीर करूँ
शायरी में इस मुकाम तक पहुँचने के बाद भी आज शहरयार अदब पर कोई बड़ी तक़रीर नहीं करते ! न लोगों को सुनाने के लिए कभी पीछा करते हैं। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि जो उन्हें कहना चाहिए, कहते न हों, हाँ, ये बात दूसरी है कि कहने का तरीका उनका अपना है ! वे जो कहना चाहते हैं उसे सिर्फ शायरी के माध्यम से कहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था और विचारधारा के मुताल्लिक उनका ज़ेहन बिल्कुल साफ है ! वे वैज्ञानिक वस्तुपरक विचारधारा में यकीन रखते हैं ! लेकिन उन्हें कोई फार्मूला कबूल नहीं है ! दुनिया में खूबसूरती का सपना देखनेवाला ये शायर इस बात से नाशाद भी है कि मुल्क को जो हासिल हो जाना चाहिए था, आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी नहीं हुआ ! उनकी शख्सियत पर यह पहलू भी गौरतबल है कि यूनीवर्सिटी से रिटायर होने के बाद उन्होंने किसी एक्शटैंशन की माँग नहीं की जबकि यह एक दस्तूर सा बन गया है !
शहरयार मानवीय मूल्यों को सबसे ऊपर मानते हैं। उनका कहना है कि ‘इतिहास को देखें तो सभी लोगों ने साहित्य नहीं पढ़ा लेकिन इंसानी मूल्यों ने इंसान की तरक्की का रास्ता दिखाया है।’ उनका यह भी कहना है कि अदब को भाषा की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता ! हिन्दी और उर्दू को लेकर तो उनका ज़ेहन एकदम साफ है ! वह दो टूक लइज़े में कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू अदब और शायरी के मक़सद अलग नहीं हो सकते । मुद्दे बहुत आम हैं और उलझनें एक ही तरह की हैं ! असल में अपने ज़हनी इलाके के सवालों और सबब से ही हिन्दी-ऊर्दू अदब बनता है !
शायरी हो या अफ़साना शहरयार बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जो लिखना है जमकर लिखो और इतना लिखो कि अपने लिखे को भी जी भर के खारिज़ कर सको जिससे साहित्य जो सामने आए तो खूबसूरत और असरदार बन सके। इसके साथ ही वह बहसों में न हिस्सा लेते हैं और न शरीक होते हैं क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपना सकून नहीं खोना चाहते ! उनके मुताबिक ज़िन्दगी का भी अपना एक रवैया होता है और इसके भीतर से ही शायद उनका यह फ़लसफा बना है कि जो आप कर सकते हैं, वह आपको पता नहीं होता और जो आप नहीं कर सकते, उसे आप हमेशा जानते हैं। अच्छे मकसद के लिए माध्यम भी सही होना चाहिए, इसी की अव्यक्त तलाश उनकी शायरी है !
शहरयार की अपनी सभ्यता, इतिहास, भाषा और धर्म से बेहद लगाव है लेकिन इनका धर्म संस्कृति को जानने का एक रास्ता है और संस्कृति और समाज की आत्मा को पहचाने बिना शायरी नहीं की जा सकती। जिन्दगी के मायने तलाशना बहुत मुश्किल काम है, अक्सर पर्त-दर-पर्त उधेड़ते हुए भी तलाश पूरी नहीं होती। इसलिए वह ग़जल और नज़्म लिखते ही नहीं हैं, बल्कि उनके साथ जीते हैं। लफ्जों का इस्तेमाल नहीं करते जो अपने मायने खो चुके हैं। वे मुश्किल से मुश्किल और पेचीदा इंसानी ज़ज्बात को भी बहुत सीधे-साधे ढंग से पेश करने की क्षमता रखते हैं।
इसलिए शहरयार को पढ़ते हुए रुकना पड़ता है....पर यह रुकावट नहीं, बात के पड़ाव हैं जहाँ सोच को सुस्ताना पड़ता है सोचने के लिए। चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द ‘शाइस्तगी’ है। शायद यही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते रहते हैं....सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं, जो झट से गुजर जाते हैं बल्कि उन पेड़ों की तरह जो दूर चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं !
शहरयार की शायरी में एक अन्दरूनी सन्नाटा है। वह बिना कहे अपने वक्त के तमाम तरह के सन्नाटो से बाबस्ता हो जाता है...सोच में डूबे हुए यह सन्नाटे जब दिल की बेचैन बस्ती में गूँजते हैं तो कभी निहायत निजी बात कहते हैं, कभी इतिहास के पन्ने पलट देते हैं, कभी डायरी की इबारत बन जाते हैं। कभी उसी इबारत पर पड़े आँसुओं के छीटों से मिट गए या बदशक्ल हो गए अल्फाज़ को नए अहसास के सांस से दुबारा ज़िन्दा कर देते हैं...शायद इसलिए शहरयार की शायरी मुझे एकान्तिक खलिश और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी लगती है, जो दिलो-दिमाग़ की बंजर बनाती गई जमीन को सींचती है।
शहरयार एक ख़ामोश शायर हैं जो बात को ऊँची आवाज में पेश करना मुनासिब नहीं समझते, लेकिन जो कुछ उनके अन्दर के बियाबान में बीतता और ज़हनी सतह पर घटित होता है, वह जब इस कठिन दौर की खामोशी से जुड़ता है तो एक समवेत चीखती आवाज़ में बदल जाता है। बड़े अनकहे तरीके से अपनी ख़ामोशी-भरी शाइस्ता आवाज़ को रचनात्मक चीख में बदल देने का यह फ़न शहरयार की महत्त्वपूर्ण कलात्मक उपलब्धि है जो बरास्ते फ़ैज़ और फ़िराक़ से कतरा कर उन्होंने हासिल की है। मुझे तो लगता है कि फ़ैज़ की साफ़बयानी और फ़िराक़ की गहरी तनकीदी और तहज़ीबी कोशिश को उनसे कतरा करके भी शहरयार ने उन्हीं की तरह, लेकिन उनसे अलग वो इशारे पैदा किए हैं जो कविता के इशारे होते हुए भी इन्सान के बेचैन इशारे बन जाते हैं-‘ग़मे जाना’ के साथ-साथ ‘ग़मे दौरां’ के इशारे।
शहरयार की खूबी यही है कि उनकी रचना का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन उसमें झाँकिए तो अपना और फिर धीरे-धीरे वक्त का बदहाल चेहरा झाँकने लगता है। उनकी शायरी में हर इंसानी और कुदरती मौसम के साथ-साथ वह शऊर मौजूद है, जो तुकबन्दी को तोड़कर अश्ऊर और बात को बेतुका होने से बचाता है, जहाँ ग़ज़ल का फ़न नहीं, हर मौसम की हल्की हवा की तरह बात अपनी बात कहती है और वह बात एक यादगार ग़ज़ल या नज़्म बन जाती है। इसमें न कुछ रेशमी है, न तो सूती, यह बस भीगी बालू की तरह भारी, हमवार और सराबोर है। शहरयार की शायरी की इसी भीगी बालू को निचोड़ा नहीं जा सकता; बस, इतना महसूस किया जा सकता है कि इसके नीचे या तो गहरे अहसास की कोई नदी है या तहज़ीबी अहसास का कोई समुन्दर !
दिमाग़ी या वक्ती जद्दोजहद के दौरान जैसे कभी मैं अपनी माँ की तस्वीर देखता हूँ या मीराबाई की तन्मय लाइनें याद करता हूँ या केदारनाथ अग्रवाल की केन-किनारे की कविताएँ गुनगुनाता हूँ या नागार्जुन को पढ़ते-पढ़ते मैदान-ए-जंग में उतर जाता हूँ या दुष्यन्त की पंक्तियों के साथ आज के बदशक्ल और बदहाल हालात की गलियों में बदनुमा चेहरों को पहचानने के लिए उतर जाता हूँ और ‘यह सूरत बदलनी चाहिए’ के उद्घोष में शामिल हो जाता हूँ, कुछ उसी तरह मैं शहरयार की शायरी को इस लहूलुहान तहज़ीब के मुश्किल वक्त में आए हुए दोस्त के ख़त की तरह पाता हूँ...
शहरयार ने काल्पनिक सूजन संसार की बजाय दुनिया की असलियत को ग़ज़लों के लिए चुना है। उनका एक ही सपना है कि दुनिया में अमन, सकून और खुलहाली का माहौल हो। आँख और ख्वाब के बीच शायरी बुनता और गुनता यह शायर हार मानने को तैयार नहीं है और यह हार न मानने की ज़िद ही शहरयार को एक बुलंदपाया शायर बना देती है। उन्होंने कभी अपनी शायरी को सियासी प्रचार का माध्यम नहीं बनाया है बल्कि उनकी कलात्मक तराश के साथ अपनी समाजी चिंता को बरक़रार रखा है ! कलात्मकता का यह रूप उन्हें आधुनिक तो बनाता ही है, साथ ही अपने समय के साथ ला खड़ा करता है ! शहरयार हमेशा अपने युग से दो-चार होता नजर आता है !
शहरयार मानवीय मूल्यों को सबसे ऊपर मानते हैं। उनका कहना है कि ‘इतिहास को देखें तो सभी लोगों ने साहित्य नहीं पढ़ा लेकिन इंसानी मूल्यों ने इंसान की तरक्की का रास्ता दिखाया है।’ उनका यह भी कहना है कि अदब को भाषा की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता ! हिन्दी और उर्दू को लेकर तो उनका ज़ेहन एकदम साफ है ! वह दो टूक लइज़े में कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू अदब और शायरी के मक़सद अलग नहीं हो सकते । मुद्दे बहुत आम हैं और उलझनें एक ही तरह की हैं ! असल में अपने ज़हनी इलाके के सवालों और सबब से ही हिन्दी-ऊर्दू अदब बनता है !
शायरी हो या अफ़साना शहरयार बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जो लिखना है जमकर लिखो और इतना लिखो कि अपने लिखे को भी जी भर के खारिज़ कर सको जिससे साहित्य जो सामने आए तो खूबसूरत और असरदार बन सके। इसके साथ ही वह बहसों में न हिस्सा लेते हैं और न शरीक होते हैं क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपना सकून नहीं खोना चाहते ! उनके मुताबिक ज़िन्दगी का भी अपना एक रवैया होता है और इसके भीतर से ही शायद उनका यह फ़लसफा बना है कि जो आप कर सकते हैं, वह आपको पता नहीं होता और जो आप नहीं कर सकते, उसे आप हमेशा जानते हैं। अच्छे मकसद के लिए माध्यम भी सही होना चाहिए, इसी की अव्यक्त तलाश उनकी शायरी है !
शहरयार की अपनी सभ्यता, इतिहास, भाषा और धर्म से बेहद लगाव है लेकिन इनका धर्म संस्कृति को जानने का एक रास्ता है और संस्कृति और समाज की आत्मा को पहचाने बिना शायरी नहीं की जा सकती। जिन्दगी के मायने तलाशना बहुत मुश्किल काम है, अक्सर पर्त-दर-पर्त उधेड़ते हुए भी तलाश पूरी नहीं होती। इसलिए वह ग़जल और नज़्म लिखते ही नहीं हैं, बल्कि उनके साथ जीते हैं। लफ्जों का इस्तेमाल नहीं करते जो अपने मायने खो चुके हैं। वे मुश्किल से मुश्किल और पेचीदा इंसानी ज़ज्बात को भी बहुत सीधे-साधे ढंग से पेश करने की क्षमता रखते हैं।
इसलिए शहरयार को पढ़ते हुए रुकना पड़ता है....पर यह रुकावट नहीं, बात के पड़ाव हैं जहाँ सोच को सुस्ताना पड़ता है सोचने के लिए। चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द ‘शाइस्तगी’ है। शायद यही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते रहते हैं....सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं, जो झट से गुजर जाते हैं बल्कि उन पेड़ों की तरह जो दूर चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं !
शहरयार की शायरी में एक अन्दरूनी सन्नाटा है। वह बिना कहे अपने वक्त के तमाम तरह के सन्नाटो से बाबस्ता हो जाता है...सोच में डूबे हुए यह सन्नाटे जब दिल की बेचैन बस्ती में गूँजते हैं तो कभी निहायत निजी बात कहते हैं, कभी इतिहास के पन्ने पलट देते हैं, कभी डायरी की इबारत बन जाते हैं। कभी उसी इबारत पर पड़े आँसुओं के छीटों से मिट गए या बदशक्ल हो गए अल्फाज़ को नए अहसास के सांस से दुबारा ज़िन्दा कर देते हैं...शायद इसलिए शहरयार की शायरी मुझे एकान्तिक खलिश और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी लगती है, जो दिलो-दिमाग़ की बंजर बनाती गई जमीन को सींचती है।
शहरयार एक ख़ामोश शायर हैं जो बात को ऊँची आवाज में पेश करना मुनासिब नहीं समझते, लेकिन जो कुछ उनके अन्दर के बियाबान में बीतता और ज़हनी सतह पर घटित होता है, वह जब इस कठिन दौर की खामोशी से जुड़ता है तो एक समवेत चीखती आवाज़ में बदल जाता है। बड़े अनकहे तरीके से अपनी ख़ामोशी-भरी शाइस्ता आवाज़ को रचनात्मक चीख में बदल देने का यह फ़न शहरयार की महत्त्वपूर्ण कलात्मक उपलब्धि है जो बरास्ते फ़ैज़ और फ़िराक़ से कतरा कर उन्होंने हासिल की है। मुझे तो लगता है कि फ़ैज़ की साफ़बयानी और फ़िराक़ की गहरी तनकीदी और तहज़ीबी कोशिश को उनसे कतरा करके भी शहरयार ने उन्हीं की तरह, लेकिन उनसे अलग वो इशारे पैदा किए हैं जो कविता के इशारे होते हुए भी इन्सान के बेचैन इशारे बन जाते हैं-‘ग़मे जाना’ के साथ-साथ ‘ग़मे दौरां’ के इशारे।
शहरयार की खूबी यही है कि उनकी रचना का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन उसमें झाँकिए तो अपना और फिर धीरे-धीरे वक्त का बदहाल चेहरा झाँकने लगता है। उनकी शायरी में हर इंसानी और कुदरती मौसम के साथ-साथ वह शऊर मौजूद है, जो तुकबन्दी को तोड़कर अश्ऊर और बात को बेतुका होने से बचाता है, जहाँ ग़ज़ल का फ़न नहीं, हर मौसम की हल्की हवा की तरह बात अपनी बात कहती है और वह बात एक यादगार ग़ज़ल या नज़्म बन जाती है। इसमें न कुछ रेशमी है, न तो सूती, यह बस भीगी बालू की तरह भारी, हमवार और सराबोर है। शहरयार की शायरी की इसी भीगी बालू को निचोड़ा नहीं जा सकता; बस, इतना महसूस किया जा सकता है कि इसके नीचे या तो गहरे अहसास की कोई नदी है या तहज़ीबी अहसास का कोई समुन्दर !
दिमाग़ी या वक्ती जद्दोजहद के दौरान जैसे कभी मैं अपनी माँ की तस्वीर देखता हूँ या मीराबाई की तन्मय लाइनें याद करता हूँ या केदारनाथ अग्रवाल की केन-किनारे की कविताएँ गुनगुनाता हूँ या नागार्जुन को पढ़ते-पढ़ते मैदान-ए-जंग में उतर जाता हूँ या दुष्यन्त की पंक्तियों के साथ आज के बदशक्ल और बदहाल हालात की गलियों में बदनुमा चेहरों को पहचानने के लिए उतर जाता हूँ और ‘यह सूरत बदलनी चाहिए’ के उद्घोष में शामिल हो जाता हूँ, कुछ उसी तरह मैं शहरयार की शायरी को इस लहूलुहान तहज़ीब के मुश्किल वक्त में आए हुए दोस्त के ख़त की तरह पाता हूँ...
शहरयार ने काल्पनिक सूजन संसार की बजाय दुनिया की असलियत को ग़ज़लों के लिए चुना है। उनका एक ही सपना है कि दुनिया में अमन, सकून और खुलहाली का माहौल हो। आँख और ख्वाब के बीच शायरी बुनता और गुनता यह शायर हार मानने को तैयार नहीं है और यह हार न मानने की ज़िद ही शहरयार को एक बुलंदपाया शायर बना देती है। उन्होंने कभी अपनी शायरी को सियासी प्रचार का माध्यम नहीं बनाया है बल्कि उनकी कलात्मक तराश के साथ अपनी समाजी चिंता को बरक़रार रखा है ! कलात्मकता का यह रूप उन्हें आधुनिक तो बनाता ही है, साथ ही अपने समय के साथ ला खड़ा करता है ! शहरयार हमेशा अपने युग से दो-चार होता नजर आता है !
माना साहिल दूर बहुत है
माना दरिया है तूफानी
कश्ती पार नहीं होने की
आखिर कोशिश को करनी है।
या फिर
जो जहाँ कदम जमाए रहे
क्या ख़बर कब ज़मीन चलने लगे
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
माना दरिया है तूफानी
कश्ती पार नहीं होने की
आखिर कोशिश को करनी है।
या फिर
जो जहाँ कदम जमाए रहे
क्या ख़बर कब ज़मीन चलने लगे
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
ये तो शायर की एक बेचैनी है जिसके तहत वह पूरी व्यवस्था और यथास्थिति को कुरेदता है। लेकिन वह मायूस नहीं होता, और सपने देखना बन्द नहीं करता ! उसे अब भी उम्मीद है कि इस बदहाली की आँधी में भी शमां जलाने की जरूरत बाक़ी है।
आँधी की ज़द में शम्ए-तमन्ना जलाई जाए
जिस तरह भी हो लाज जुनूँ की बचाई जाए।
जिस तरह भी हो लाज जुनूँ की बचाई जाए।
शायर अपने इन्हीं समाजी सरोकारों की वजह से एक साधनारत विद्रोही का रूप अख्तियार कर लेता है और व्यंग्य का सहारा लेता है क्योंकि बिगड़े समाजी और सियासी माहौल का खुलासा करने और उसे बिगाड़ने वालों के खिलाफ व्यंग्य सबसे पुख्ता हथियार है ! शहरयार व्यंग्य के माध्यम से समाज के उन बदनुमा धब्बों की ओर अक्सर इशारा करते हैं और उन पर सवालिया निशान लगा देते हैं !
जो बुरा था कभी, वह हो गया अच्छा कैसे
वक्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे
वक्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे
इसी की एक और मिसाल जिसमें शायर ऐसे माहौल और लोगों से निज़ात पाने के लिए उकसाता है :
तमाम शहर आग की लपेट में है
हजूर कब से मीठी नींद सो रहे हैं, भागिए।
अब और कुछ न देखिये, अब और कुछ न सोचिए
तमाम शहर भाग की लपेट में है, भागिए।
हजूर कब से मीठी नींद सो रहे हैं, भागिए।
अब और कुछ न देखिये, अब और कुछ न सोचिए
तमाम शहर भाग की लपेट में है, भागिए।
शहरयार की शायरी में आज के शहरी जीवन और औद्योगिक विकास के बीच गिरते इन्सानी मूल्यों को लेकर बेहद चिन्ता है। इस औद्योगिक विकास से समाज तरक्की नहीं कर रहा। नएपन के नाम में अतीत की झूठी और वायवी चेतना का कई रूपों में प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, इसलिए जीवन-मूल्यों का दिया जलाए रहने के लिए शायर कसम खाता है :
तेज़ हवा में जला दिल का दिया आज तक
ज़ीस्त से एक अहद था, पूरा किया आज तक।
सूरज का सफ़र खत्म हुआ रात न आई,
हिस्से में मेरे ख्वाबों की सौगात न आई !
यूँ डोर को हम वक्त की पकड़े तो हुए थे
इक बार मगर छूटी तो फिर हाथ न आई।
हर सिम्त नजर आती हैं बे-फ़स्ल जमीनें,
इस साल भी इस शहर में बरसात न आई।
ज़ीस्त से एक अहद था, पूरा किया आज तक।
सूरज का सफ़र खत्म हुआ रात न आई,
हिस्से में मेरे ख्वाबों की सौगात न आई !
यूँ डोर को हम वक्त की पकड़े तो हुए थे
इक बार मगर छूटी तो फिर हाथ न आई।
हर सिम्त नजर आती हैं बे-फ़स्ल जमीनें,
इस साल भी इस शहर में बरसात न आई।
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